Friday 26 July 2013

घटते किसान, बढ़ते कृषि मज़दूर

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 in Daily News, Jaipur
नेसार अहमद

भारत की जनगणना 2011 के रोजगार संबंधित आंकड़े जारी हो गये हैं। इन आंकड़ों ने पिछले दो दशकों में कृषि तथा किसानों की बदतर हो रही स्थिति को ही उजागर किया है। उदारीकरण एवं वैश्वीकरण के दौर में बढ़ते लागत खर्च, आयात-निर्यात पर छूट से सीधे विकसित देशों के कृषि उत्पादों से मुकाबला, महंगे एवं नकली कीटनाशकों की मार तथा उद्योगों, खाद्यानों एवं शहरीकरण के लिये किसानों से छीनी जा रही जमीनों ने कुल मिलाकर वो स्थिति पैदा की है कि देश भर में किसान खेती छोड़ कर खेतों में ही मज़दूर बन रहे हैं। 2011 के जनगणना के आंकड़ों के अनुसार जहां किसानों की संख्या में कमी हुई है वहीं देश में कृषि मजदूरों की संख्या बढ़ी है। देश में ऐसा पहली बार हो रहा है कि कृषि पर निर्भर मजदूरों की संख्या अपने खेत पर खेती कर रहे किसानों से अधिक हो गई है। देश में किसानों की कुल संख्या वर्ष 2001 में 12.73 करोड़ थी जो 2011 में कम हो कर 11.87 करोड़ हो गई है। जबकि इसी अवधि में कृषि मज़दूरों की संख्या 2001 में 10.66 करोड़ से बढ़ कर 2011 में 14.43 करोड़ हो गई है। देश के कुल कामगारों में कृषि मज़दूरों का प्रतिषत 2001 में 26.5 प्रतिषत से बढ़कर 2011 में 30 प्रतिषत हो गया है। जाहिर है छोटे एवं सीमांत किसान खेती छोड़ रहे हैं और खेत मज़दूर बनने को विवश हो रहे हैं। यह प्रक्रिया राजस्थान सहित पूरे देश में जारी है।

राजस्थान में किसानों की संख्या इस दशक में मात्र 5 लाख से बढ़कर 1.31 (2001) करोड़ से 1.36 करोड़ (2011) हुई है, जबकि इसी अवधि में खेतीहर मज़दूरों की संख्या 25 लाख से बढ़कर 49 लाख, यानी लगभग दोगुनी हो गई है। कुल कामगार आबादी के प्रतिशत के रूप में राज्य में किसानों का प्रतिशत 2001 के 55 प्रतिशत से कम होकर 2011 में 45 प्रतिशत हो गया है। जबकि इसी अवधि में खेतिहर मज़दूरों का प्रतिशत 10.6 प्रतिशत से बढ़कर 16.5 प्रतिशत हो गया है।

इन आंकड़ों का सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि खेती से विस्थापित हो रहे किसानों को कृषि क्षेत्र में ही कार्य करना पड़ता है क्योंकि देश के औद्योगिक क्षेत्रों में पिछले दशक में अत्यंत तीव्र वृद्धि के बावजूद रोजगार के अवसर बढ़ नहीं रहे हैं।

इसका नतीजा यह है कि देश की अधिकांश आबादी कृषि पर निर्भर है। परन्तु अत्यंत महत्वपूर्ण परिवर्तन यह आया है कि कृषि क्षेत्र में किसान अपने खेतों पर काम नहीं करके दूसरे (बड़े) किसानों के खेतों पर मज़दूरी करने को बाध्य हो रहा है। इसका कारण है उद्योगों, खनिजों तथा शहरीकरण  के लिये कृषि भूमि का गैर कृषि उपयोग में परिवर्तन। सितंबर 2007 में राज्य सभा में दिये गये एक प्रश्न के उत्तर में सरकार ने बताया था कि 2001-02 से 2005-06 के बीच देश में कुल कृषि भूमि में 6 लाख हैक्टेयर की कमी आई थी, जबकि इसी अवधि में गैर कृषि उपयोग की भूमि में 9.4 लाख हैक्टेयर की वृद्धि हुई थी।

यही नहीं उदारीकरण तथा निजीकरण के इस दौर में कृषि लागतों जैसे खाद, बीज, कीटनाषकों आदि के मंहगे होते जाने से छोटे किसानों के लिये खेती करना दिनोंदिन मंहगा होता जा रहा है। ज़ाहिर है ऐसे में छोटे एवं सीमीत किसान अपनी खेत बेचने पर भी मजबूर हो रहे हैं। एक तरफ सरकार द्वारा किया जा रहा भूमि अधिग्रहण तथा दूसरी तरफ मंहगी होती खेती ने किसानों को खेत मज़दूर बनने पर मजबूर किया है।

इन आंकड़ों ने इस मिथक को भी तोड़ा है कि मनरेगा के कारण गांवों में कृषि मज़दूरों की कमी हो गई है। ये आंकड़ें बताते हैं कि देश में कृषि मज़दूरों की संख्या बढ़ी है। जाहिर है कोई भी मज़दूर केवल मनरेगा के 100 दिन के रोजगार (जो कहीं भी पूरे 100 दिन मिलते नहीं हैं) के भरोसे पूरा वर्ष काम नहीं करे ऐसा नहीं हो सकता तथा यदि गांवों में रहना है तो उसे कृषि मजदूरी ही करनी होगी क्यों गैर कृषि रोजगार नहीं बढ़े हैं।

देश में किसानों की घटती संख्या तथा कृषि मजदूरों की संख्या में आई बढ़ोतरी ने उस क्रूर स्थिति को ही उजागर किया है जिसके चलते लाखों किसान आत्म हत्या को मजबूर हो रहे हैं तथा देश भर में किसान अपनी जमीनों को बचाने के लिये आन्दोलन कर रहे हैं। आशा है देश तथा राज्य की सरकारें अब किसानों एवं खेती की सुध लेंगी।

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