Saturday 4 August 2012

ग्रिड नाकाम हुए या हमारी ऊर्जा नीति


कुमार सुंदरम
[जनसत्ता 4 अगस्त, 2012: से साभार]

अकाल के समय सूखी धरती का फोटो चस्पां कर देना और इतिहास की सबसे बड़ी ग्रिड-नाकामी पर यह लिख देना कि साठ करोड़ लोग अंधेरे में डूब गए, हमारे सरलीकरण-प्रेमी मीडिया का ऐसा शगल है जो इस देश की नीति और व्यवस्था के व्यापक सवालों से जूझने वालों के लिए महंगा पड़ता है। हम बाद में लोगों को यह बताते फिरें कि कालाहांडी में राष्ट्रीय औसत से ज्यादा बारिश होती है और देश के बड़े हिस्से में बत्ती गुल होना गरमी के उन हफ्तों के बीत जाने के बाद हुआ था, जिनमें बिजली की मांग चोटी पर चढ़ जाती है। रविवार को तो देर रात दो बजे से बिजली गई, जो वैसे भी अत्यधिक उपभोग वाले घंटे नहीं होते। 

असल में, चाहे घरों के चूल्हे ठप होने की बात हो या बिजली गुल होने की, यह सबसे सुविधाजनक होता है कि हम मान लें कि बाकी सब कुछ सही है और उत्पादन बढ़ाने और उसे हम तक पहुंचाने के लिए देश की सरकार पर पूरा भरोसा करना चाहिए। बल्कि हमारा मध्यवर्ग संवृद्धि के इस घोषित रास्ते पर सवाल उठाने वालों पर सरकारी हमलों का सक्रिय सहयोगी बनता दिख रहा है। 

पिछले हफ्ते ग्रिडों का फेल होना दरअसल हमारी समूची ऊर्जा-नीति के दिवालिया हो जाने का सूचक है। 

राष्ट्रीय ग्रिड वस्तुत: बिजली उत्पादन-केंद्रों, पारेषण लाइनों और उप-स्टेशनों को वितरण-कंपनियों और उपभोग-केंद्रों से जोड़ने वाला एक जटिल और संघनित नेटवर्क होता है। उत्पादन-केंद्र उच्च-वोल्टेज वाली ट्रांसमिशन-लाइनों से ग्रिड तक बिजली पहुंचाते हैं जहां से इसे उद्योगों और बस्तियों तक पहुंचाया जाता है। यह पूरी प्रणाली उत्पादन-केंद्र और लोड के बीच बहुत ही नाजुक संतुलन पर काम करती है। भारत में ऐसे पांच ग्रिड हैं- उत्तरी, पूर्वी, उत्तर-पूर्वी, दक्षिणी और पश्चिमी। सरकारी स्वामित्व वाला पॉवर ग्रिड कॉरपोरेशन इन ग्रिडों का प्रबंधन करता है, जिन पर कुल 95,000 किलोमीटर तक फैली पारेषण-लाइनों का नेटवर्क निर्भर है। रविवार को उत्तरी ग्रिड और मंगलवार को उत्तरी, पूर्वी और उत्तर-पूर्वी ग्रिड नाकाम हो गए थे। 

लेकिन ग्रिड के फेल होने का कोई तकनीकी संबंध बिजली की कुल उत्पादन-क्षमता से नहीं है। इसको कुछ ऐसे समझा जाए कि बिजली का ग्रिड के स्तर पर भंडारण नहीं किया जा सकता है, इसलिए उपभोक्ता-केंद्रों तक बिजली पहुंचाने वाली प्रत्येक वितरण कंपनी को तयशुदा मात्रा में बिजली आपूर्ति की जाती है, इस प्रक्रिया में मौसम और दिन-रात के बीच होने वाले उतार-चढ़ाव को ध्यान में रखा जाता है। बिजली की मांग के उतार-चढ़ाव के आधार पर वितरण और पारेषण पर नियंत्रण रखने के लिए उत्तरी क्षेत्र में कई लोड-डिस्पैच केंद्र और उच्च-वोल्टेज क्षमता वाले ट्रांसफार्मर हैं जो स्वनियंत्रित प्रणाली से काम करते हैं। इस प्रणाली में स्वचालित रिले मशीनों का उपयोग होता है जो बिजली की फ्रीक्वेंसी पर नजर रखती हैं और किसी खास हिस्से पर अत्यधिक दबाव होने की दशा में उसे देश के बाकी नेटवर्क से तात्कालिक रूप से अलग कर देती हैं, जिससे कोई व्यापक गड़बड़ी न हो। 

पिछले दशक में बिजली के वितरण को बाजार बना कर प्राइवेट कंपनियों के बीच बांट दिया गया है। अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की इन कंपनियों की होड़ में जहां एक तरफ ग्रिडों पर पड़ने वाले दबाव का सही लेखा-जोखा रखने की व्यवस्था ध्वस्त हो गई है वहीं इनके दबाव में राज्य-स्तरीय ग्रिड जान-बूझ कर रिले-प्रणाली को बंद कर देते हैं। ऐसे में, राष्ट्रीय नेटवर्क का नाकाम होना लाजिमी है। इस समस्या के निदान के लिए जहां एक तरफ तकनीकी तौर पर इस पूरी प्रणाली को और अधिक लोचदार और स्वचालित करना जरूरी है वहीं बिजली के प्रबंधन को निजी मुनाफे के भरोसे छोड़ने पर पुनर्विचार की जरूरत है।
लेकिन पूरे हफ्ते इस मुद््दे पर मीडिया में चली बहस का जोर सिर्फ दो बातों पर रहा। बिजली का पूरी तरह निजीकरण हो और बिजली-उत्पादन में आ रही अड़चनों- पर्यावरणीय मंजूरी की प्रक्रिया और इन बिजलीघरों द्वारा विस्थापित होने वाले लोगों के प्रतिरोध- से किसी भी तरह निजात मिले। निजीकरण को कार्यकुशलता का पर्याय मानने वालों के लिए किंगफिशर एअरलाइंस जैसे कई उदाहरण गिनाए जा सकते हैं जो अब उबरने के लिए जनता के पैसे का सहारा ढूंढ़ रहे हैं। 

लेकिन तकनीकी और प्रबंधन-नीति की बहस से भी आगे जाकर पूरी ऊर्जा नीति पर समेकित रूप से विचार करना आज की सबसे बड़ी जरूरत है। इस पूरी समस्या की जड़ दरअसल केंद्रीकृत विकास और ऊर्जा-नीति की संकेंद्रित बुनावट में है। आज देश की समूची बिजली-आपूर्ति केंद्रीकृत हो चुकी है। इससे न सिर्फ किसी भी तकनीकी या प्रबंधकीय समस्या से पूरे देश की बत्ती गुल हो जाती है बल्कि इस पद्धति में बिजली का अक्षम्य अपव्यय भी होता है। 

पारेषण और वितरण की मौजूदा व्यवस्था में कुल उत्पादित बिजली का लगभग तीस प्रतिशत जाया हो जाता है। उत्पादन और उपभोग केंद्रों के बीच यह दूरी इसलिए भी इतनी अधिक है कि आबादी का बोझ ज्यादातर बड़े शहरों में बढ़ता जा रहा है। जहां एक तरफ इस व्यवस्था में इतना अधिक अपव्यय होता है, वहीं दूसरी तरफ परमाणु और कोयला आधारित बिजलीघरों के विस्तार का पागलपन हमेशा हावी रहता है जो पर्यावरण और लोगों की पारंपरिक जीविका दोनों के विनाश का कारण बनता है। 

ऊर्जा नीति को लेकर आज एक वैकल्पिक समझ बनाने की जरूरत है जिसमें बिजली के प्राकृतिक स्रोतों के साथ-साथ इसके उत्पादन को   विकेंद्रीकृत और उपभोग को तर्कसंगत बनाने पर भी बल हो। केंद्रीकृत बिजली-उत्पादन से भारत जैसे देश का भला नहीं हो सकता, जहां ज्यादातर आबादी अब भी गांवों में रहती है। केंद्रीकृत बिजलीघरों के लिए लगातार और उच्च मांग वाले उपभोक्ता चाहिए होते हैं, जो गांव नहीं हो सकते, जहां बिजली की मांग खेती के मौसम और दिन-रात के अनुसार बहुत अधिक ऊपर-नीचे होती हो। हमारे नीति-निर्माताओं और उनके समर्थक बुद्धिजीवियों को बड़े बिजलीघरों के खतरनाक विस्तार के समर्थन में गरीबों तक बिजली पहुंचाने का ढोंग बंद कर देना चाहिए। 

परमाणु-करार के समय संसद में राहुल गांधी ने महाराष्ट्र की कलावती का घर बेरौशन होने पर आंसू बहाए थे; उन्हें अब न तो कलावती का हाल जानने की सुध है न ही इस बात की कोई चिंता कि अपने इलाके की जरूरत से ज्यादा बिजली पहले ही उत्पादित कर रहे कोंकण में जैतापुर के परमाणु-बिजलीघर और अन्य कई थर्मल पॉवर स्टेशनों के लिए सरकार लाखों लोगों के घर क्यों उजाड़ रही है। बड़े बिजलीघरों की एक जरूरत बहुत अधिक मात्रा में पानी-आपूर्ति की होती है, जिसे भाप में बदल कर उससे टरबाइन चलाया जाता है जिससे बिजली बनती है। जैतापुर और मध्यप्रदेश के चुटका से लेकर हरियाणा के फतेहाबाद तक बन रहे बिजली के ये भीमकाय उत्पादन-केंद्र किसानों का पानी छीन रहे हैं। टरबाइन चलाने के बाद साधारण पानी से पांच से सात डिग्री तक ज्यादा गर्म और गंदे पानी को वापस नदियों और नहरों में छोड़ दिया जाएगा जिससे खेती असंभव और दूषित हो जाएगी। 

यह सब किसलिए? ताकि हम शहरों में मशीनों का साफ  पानी पी सकें। सरल शब्दों में कहें तो सैकड़ों किलोमीटर दूर किसानों का पानी खौला कर बिजली इसलिए बन रही है कि शहराती लोगों को अपने घर में पानी खौला कर शुद्ध करने के बजाय बिजली की मशीन का स्मार्ट पानी मिल सके। यह तथाकथित विकास और उन्नत जीवन पद्धति असली जरूरत से ज्यादा आज एक विकृत सौंदर्यशास्त्र का रूप ले चुकी है। इसीलिए सारे तर्क, सारे वैकल्पिक आंकड़े धरे के धरे रह जाते हैं और हिंसक उपभोक्ता भीड़ इस देश की आत्मा का सरे-राह कत्ल कर देती है। केंद्रीकृत विकास में छिपी इस हिंसा का खतरा गांधीजी ने बहुत पहले ही भांप लिया था। 

आज दुनिया भर में जब बिजली के नवीकरणीय स्रोतों और विकेंद्रित ऊर्जा-नीति की पड़ताल चल रही है, भारत का शासक वर्ग अपने नवउदारवादी कठमुल्लेपन में पूरे देश को अंधेरे कुएं में धकेल रहा है। जर्मनी जैसे विकसित औद्योगिक देशों में ऊर्जा के हरित स्रोतों पर बल दिया जा रहा है और रोज ही सौर ऊर्जा और पवनचक्की की तकनीक में नए शोध सामने आ रहे हैं जिससे यह सुलभ और सस्ता भी होता जा रहा है। लेकिन भारत में परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष पद से सेवानविृत्त हुए सज्जन को सौर ऊर्जा मिशनों की जिम्मेवारी दे दी जाती है और अपनी पहली प्रेस-वार्ता में ही वे सौर-ऊर्जा की संभावना को हतोत्साहित करते हैं। जबकि आज भी देश की कुल बिजली का लगभग दस प्रतिशत नवीकरणीय स्रोतों से आता है; परमाणु बिजली सिर्फ ढाई प्रतिशत आपूर्ति करती है।  2006 में घोषित समेकित ऊर्जा नीति में पूरे देश की बिजली को केंद्रीकृत और कॉरपोरेटीकृत करने की बात कही गई है। इस संदर्भ में इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि केंद्रीकृत ढंग से नवीकरणीय बिजली का निर्माण भी पर्यावरण और लोगों के लिए हानिकारक है। 

लोग अपने घरों पर सौर-ऊर्जा के सिस्टम लगाएं इसके बजाय कंपनियों का जोर इस बात पर रहता है कि जमीन के बड़े हिस्से पर सौर या पवन ऊर्जा के पार्क बना दिए जाएं और वहां से लोगों को बिजली की आपूर्ति की जाए, क्योंकि इसमें लगातार मुनाफे की गुंजाइश ज्यादा होती है। तमिलनाडु जैसे कई राज्यों में ऐसे वैकल्पिक ऊर्जा-पार्क दरअसल इस क्षेत्र में उतरे बड़े कॉरपोरेटों द्वारा सरकारी सबसिडी हड़पने का जरिया हैं। सारा ध्यान चूंकि सबसिडी से ही मुनाफा कमाने पर था, इसलिए इन ऊर्जा-पार्कों में पश्चिमी जरूरत के हिसाब से बने संयंत्र लगाए गए हैं जो भारत में हवा की गति धीमी होने से काम नहीं करते। 

नवीकरणीय ऊर्जा को कॉरपोरेटों और केंद्रीकृत वितरकों के भरोसे छोड़ने से दरअसल जनाभिमुख और पर्यावरण-हितैषी प्राकृतिक ऊर्जा-उत्पादन की छवि एक तरह से जान-बूझ कर खराब की जा रही है, जिससे लोगों में परमाणु और अन्य बड़े बिजलीघरों का आकर्षण बना रहे और इस बूते देशी-विदेशी कंपनियों की पूंजी चौतरफा बढ़ती रहे। इन सभी केंद्रीकृत परियोजनाओं को भारी सरकारी मदद दी जा रही है, जो असल में गरीबों का पैसा है। देश के पर्यावरण और लोगों की सुरक्षा के सवाल भी मुंह बाए खड़े हैं। 

देश में कथित आर्थिक सुधारों के बीसवें साल में घिरे इस अंधियारे से निकलने का रास्ता वहां से होकर जाता है जहां जनाकांक्षाएं और सरकारों के बीच मिलन होता हो। हमारी सरकार ऐसे रास्ते से बचने की हर कोशिश कर रही है। जरूरत इस बात की है कि आम लोग आगे आएं और उजाले का रास्ता साफ  करें।

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